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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

एक कोना अंग्रेजी के नाम

जब से हम ऑंखें खोलते हैं अंग्रेजी से साबका पड़ने ही लगता है। हम चाहें या न चाहें अंग्रेजी हमारे जीवन में स्‍थान बनाने लगती है।पहले हम लोगों का जन्‍मदिन मनाया जाता था उस दिन दिया जलाया जाता था .हमें तिल मिला हुआ दूध मिलता था ‍घर के बने गुलगुले बॉंटे जाते थे ।अब बर्थडे मनाया जाता है.विगत आयु के वर्षों की संख्‍या की मोम बत्‍तियॉं बुझाई जाती हैं सब लोग मिल कर बाजार से मँगाया गया केक खाते हैं।हमें तो यह भी नहीं पता थाकि केक में क्‍या क्‍या पड़ता है। टीवी के एक विज्ञापन से पता चला कि वह शुद्ध मुर्गी के अंडे से बना होता है।खैर वह सब तो ठीक है।घर का खानपान छीनने के बाद अब हमारी भाषा छीनने की बारी आती है।बच्‍चा 'हैप्‍पी बर्थ डे' गीत सुनता है।शुभ जन्‍म दिवस तो वह बड़ा होकर जानता हैजब स्‍कूल में पढ़ने लगता है।इस दशा में अगर बच्‍चा हिंदी में फेल होने लगे तो इसमें क्‍या आश्‍चर्य।वैसे माता पिता इससे भी गौरवान्‍वित होते है।सोचते हैं हिन्‍दी की जड़ें जितनी कमजोर होंगी बच्‍चा अंग्रेजी पर उतना ही आश्रित होगा यह नहीं सोचते हैं कि हिन्‍दी परिवेश के होते हुए जो बच्‍चा भाषा नहीं सीख पाया वह अंग्रेजी किस प्रकार सीख पायेगा ।
यदि हम आठवीं या दसवीं कक्षा की बात करें तब अन्‍य विषयों के साथ साथ अंग्रेजी अनिवार्य रूप सें एक विषय के रूप में चलती है।एक प्रकार से हम अपने छ: कमरों के मकान में एक कमरा अंग्रेजी के नाम कर देते हैं वह भी आगे वाला .क्योंकि हम हमेशा सोचते हैं कि कहीं इसमें फेल न हो जायें. हिन्‍दी को हम सबसे पीछे वाला स्‍थान देते हैं ।यह तो अपनी ही भाषा है।हमें सीखने की क्‍या जरूरत।हम टी वी देखते रहते हैं.पिक्‍चरें देखते रहते हैं. देखो हम सब समझ जाते हैं।फिर पढ़ने की क्‍या जरूरत।अंग्रेजी हमें आती नही (और शायद कभी आयेगी भी नहीं उसे हमें पढ़ना चाहिये खूब पढ़ना चाहिये .पढ़ते जाना चाहिये(शायद कभी आ जाए.वैसे न आए तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता ) ।हिन्‍दी बिल्‍कुल न पढ़ने के कारण कभी कभी हम फेल भी हो जाते हैं­ . हिन्‍दी मॉं कहती हैंबेटा कभी कभी तो ध्‍यान दिया करो बाहर ही घूमते रहते हो कभी कभी तो घर आकर पढ़ लिया करो नहीं तो फिर फेल हो जाओगे।सारी अंग्रेजी धरी रह जायेगी।
एक नेताजी का किस्‍सा हैवह विदेश से लौटे तो लोगों ने उनसे वहॉं की प्रगति के बारे में पूछा .उन्‍होंने कहा वहां के क्‍या कहने.वह हर बात में हमसे बहुत आगे हैं मगर एक बात जो सबसे बड़ी है वह यह कि वहॉं छोटा से छोटा बच्‍चा अंग्रेजी बोल लेता है।आज हर अभिभावक का यही सपना है।चाहे वह गांव का सुखी किसान हो जिसकी दैनिक आय 26/-रु से अधिक हो अथवा शहर का खाता पीता व्‍यक्‍ति जिसकी दैनिक आय 32/-रु से अधिक हो सबका सपना है कि बच्‍चे को सरकारी स्‍कूल में न पढ़ाकर प्राइवेट स्‍कूल में पढ़ाया जाय जहॉं अंग्रेजी पर समुचित ध्‍यान दिया जाता है।
बात छ:कमरों के मकान की चल रही थी।माध्‍यमिक स्‍तर पर पॉंच ही विषय रह जाते हैं.अब मकान पॉंच ही कमरों का रह गया।अभी भी ड्राइंग रूम में अंग्रेजी ही रहती है।इम्तहान से ठीक पहले जब हम फाइनल रिवीजन करते हैं और सभी विषयों को मुश्‍किल से एक एक .दो दो दिन ही दे पाते हैंउन दिनों में भी आमतौर पर हम रोज एक दो घंटे निकाल कर अंग्रेजी कोदेते हैं।वैसे अंग्रेजी का काम : ओवरआल परसेन्‍टेज घटाने का ही रहता है।ग्रेजुएशन स्‍तर पर अब तीन ही विषय रह जाते हैं।अब तीन कमरों के मकान में कला संकाय के वि़द्यार्थियों केपास तो फिर भी अंग्रेजी से पीछा छुड़ाने का आप्‍शन रहता है विज्ञान में तो तीनों विषय अंग्रेजी में ही पढ़ने पडते हैं । इस प्रकार अब अंग्रेजी सभी कमरों को घेर लेती है।विद्यार्थी बेचारा जाये तो कहॉं जाये।उसकी कोई बचत नहीं है।किसी प्रकार प्रोफेशनल अथवा उच्‍च शिक्षा पूर्ण कर वह बाहरी दुनिया में प्रवेशकरता है ।पढ़ाई के दौरान कुछ बातें उसे समझ आती हैं कुछ नहीं भी आती हैं।इस आधे अधूरे ज्ञान के साथ वह दुनियॉं भर की चुनौतियों का सामना करने के लिये तत्‍पर होता है।
बेरोजगारी की स्‍थिति में तरह तरह के उपदेश सुनने पड़ते हैं।तुम्‍हारी अंग्रेजी उतनी अच्‍छी नहीं है।कितनी ,जितनी जाब मिलने के लिये आवश्‍यक है।वह सोचता हैबाहरी देशों से भी से भी काफी अनएम्‍प्‍लायमेंट की खबरें आती रहती हैं।(शायद उनकी अंग्रेजी अधिक अच्‍छी है इसलिए,वह सोचता है।)अब उसे काम मिल गया है।वह एक इंजीनियर है,उसे एक पुल बनाने का काम मिला है।पिलर में क्रैक आ गया है।अब वह क्‍या करे। अंग्रेजी में उसकी सोचने की क्षमता सीनियर उसे बताते हैं इसमें कौन सी बात है क्रैक के अंदर कुछ लोहा.पुट्टी वगैरह भर दो सब ठीक हो जायेगा।मगर तरकीब काम नहीकरती।विशेषज्ञ स्‍तर पर हल निकालने के बजाय समस्‍याओं के सतही समाधान निकाले जाते हैं।कई बार मार्केटिंग स्‍तर पर समाधान निकाले जाते हैं।मार्केट वालों के पास जाकर उनसे अपनी समस्‍याएं बताते हैं उनके इंजीनियर आवश्‍यकता से अधिक बढ़चढ़ कर समाधान करते रहते हैंऔर इस तरह अपने प्राडक्‍ट उनकी समस्‍याएं हल करने के बहाने खपाते रहते हैं।रेलवे को एक शक्‍तिशाली इंजन की आवश्‍यकता है उससे दस गुना शक्‍ति का इंजन आ जायेगा।उसमें बहुत तेजी से दौड़ने की क्षमता है भले ही पटरियॉं उस लायक नहीं हैं।कहने का तात्‍पर्य यह हैकि छोटी मोटी समस्‍या का भी लंबा चौड़ा समाधान खोजा जायेगा।पहले एक कार्टून देखा था बच्चा अपने पिताजी से कह रहा है .पिता जी पहाड़ा याद करने में बहुत झंझट है आप मुझे कैलकुलेटर क्‍यों नहीं ला देते ।अब यही काम शिक्षाविद् कर रहे हैं ।प्राइमरी स्‍कूल में टीचर नहीं हैं ।यह कमी वह बच्‍चों को लैपटाप दे कर पूरी कर रहे हैं।
प्रोफेशनल सेवाओं में अधिकतर पढ़ाई अंग्रेजी में होती हैकिन्‍तु हम हिन्‍दी में सोचते हैं।अत:विदेशी भाषा में प्राप्‍तकिया गया ज्ञान हमारी चिन्‍तन प्रक्रिया का अंग नहीं बन पाता।।इसी कारण जब हम कार्यक्षेत्र में आते हैं तब हम प्रोफेशनल ज्ञान के बजाय अपने सामान्‍य ज्ञान के आधर पर समस्‍याऍंहल करने ने की कोशिश करते हैं।
इन स्‍थितियों से निकलने के लिये हमें अंग्रेजी पर जरूरत से अधिक आश्रित होने के बजाय हिंदी को उचित एवम् गौरवपूर्ण स्‍थानदेना होगा ताकि हमारा जीवन सरल सुंदर एवम् सार्थक बन सके।

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

चलचित्र और कवि

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प्रारंभ में कुछ कवि इस नये माध्‍यम की ओर आकर्षित भी हुये। सुकुमार कविता के कवि पं सुमित्रानंदन पंत ने तो बतौर नायक एक फिल्‍म (कल्‍पनामें काम भी किया यह और बात है कि किन्हीं कारणों से वह फिल्म प्रदर्शित नहीं हो पाई। कविवर प्रदीप में निराला जी अपनी ही छाया देखते थे। उन्‍होंने स्‍वतंत्रता पूर्व त‍था पश्‍चात् फिल्‍म जगत में अपनी अनुपम छटा बिखेरी। 'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो ए दुनिया वालो हिन्‍दुस्‍तान हमारा है ' स्‍वतंत्रता पूर्व के गीत तथा बाद में जागृति के गीत' आओ बच्‍चो तुम्‍हें दिखाएं झॉंकी हिन्‍दुस्‍तान की' जैसे प्रेरणादायक गीत जो हम लोगों ने बचपनमें गुनगुनाये थे उन्‍हीं की रचना हैं। बाद में उर्दू कविता तथा इसके समानांतर हिन्‍दी कविता का दौर चला। उर्दू रचनाएं काफी लोकप्रिय हुयीं किन्‍तु उनमें कविता की गहराई कम थी। फिल्‍म बरसात की रात. मेरे महबूब फिल्‍मों के प्रसिद्धगीत प्रथम परिचय की परिस्‍थितियों का वर्णन और इस प्रकार भीड़ में किसी एक की तलाश अधिक थे। कुछ गीतों को गरिमा प्रदान करने के लिये उन्‍हें रेडियो पर गाते हुये भी दिखाया गया। इससे रेडियो को भी लोकप्रियता मिली और रेडियो मुख्‍य कविता की धारा भुला कर इसी प्रकार के गीतों में अटक कर रह गया। निराला जी ने आकाशवाणी इलाहाबाद के कार्यक्रम संचालक महोदय से जब सामान्‍य से हट कर अधिक फीस की मांग की तब उन्‍हें इस बात पर बहुत अधिक हंसी आ गयी। कवि की पीड़ा से उन्‍हें कोई मतलब नहीं था। 'तिन्‍ह कहँ सुखद हास रस एहू'। कवियों का समय समय पर अपमान भी होता रहा और धीरे धीरे उन्‍होंने रेडियो स्‍टेशनों से किनारा कर लिया।
एक फिल्‍म में कवियों को बताया गया कि वे संस्‍कृतनिष्‍ट शब्‍दों को छोड़ कर सरल प्रचलित(चलताउ) शब्‍दों का प्रयोग किया करें यद्यपि यह बताने वाले फिल्‍मी कवि ने स्‍वयं अपने लिये आरजू बेखुदी जुस्‍तजू जैसे शब्‍दों का प्रयोग बड़े आराम से कर लिया।
वैसे फिल्‍में कवियों के बिना अधूरी थीं। गुरुदत्‍त की 'प्‍यासा 'फिल्‍म ने इस दृष्‍टि से दर्शकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ी।फिल्‍म' छाया 'में भी कवि को केन्‍द्र में रख कर एक अच्‍छी फिल्‍म का निर्माण किया गया था।फिल्म 'निरुपमा 'का कवि (या लेखक)एक श्रेष्‍ठ फिल्‍म का सशक्‍त पात्र था।
फिल्‍मों में अच्‍छे कवियों का प्रवेश सदा ही एक समस्या रहा ।फिल्‍मी गीतों को कवि अच्‍छी दृष्‍टि से नहीं देखते थे।राजकपूर ने जब एक कवि सम्‍मेलन में प्रभावित होकर शैलेन्‍द्र सेमुम्‍बई(तब बंबई )आने के लिये कहा तब उन्होंने कहा 'मैं बिकना नहीं चाहता'। कुछ समय बादआर्थिक परिस्‍थितयों वश मुम्‍बई आये तब फिर उनका कथन था''मैं बिकने के लिये आ गया''। बहुत समय पूर्व दिल्‍ली में हुए एक कवि सम्‍मेलन में एक कवि महोदय का परिचय कराया गया इनका गीत 'मैंने चाहा था कि ऑंचल का मुझे प्‍यार मिले..........' फिल्‍म में आाने वाला है।बाद में जब अन्‍य कवियों ने उन्‍हेंफिल्‍मी कवि कहना शुरू कर दियातब उन्‍होने संकोचपूर्वक कहा 'केवल एक गीत फिल्‍म में गया है।''...।
इस प्रकार जहॉं किसी कवि ने फिल्‍म में लिखा नहीं कि उसे साहित्‍यिक बिरादरी से बाहर करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है ।प्रसिद्ध गीतकार नीरज ने संभवत: इन्‍हीं बातों को लेकर फिल्‍मी दुनिया छोड़ दी और अपने गृह नगर जाकर स्‍वतंत्र रूप से साहित्‍य का सृजन करने लगे फिर भी हम उन्‍हें लोक प्रिय गीतकार के रूप में ही अधिक जानते हैं एक साहित्‍यकार के रूप में कम।अभी हम फिल्‍मों की बात कर रहे थे।आम तौर पर देखागया है कि कवि फिल्‍म के लिये लिखते हैं।ऐसा कम ही होता है कि गीत के लिये फिल्‍म लिखी जाये।नीरज के साथ ऐसा ही हुआ ।उनके प्रसिद्ध गीत ''कारवां गुजर गया......''को केन्‍द्र में लेकर बनी फिल्‍म 'नई उमर की नई फसल'।फिल्‍म काफी चली भी।अब नीरज जहॉं कहीं भी जाते हैं जनता की फर्माइश पर यह गीत उन्‍हें अवश्‍य सुनाना होता है।
महाकवियों की अमर रचनाएँअपना स्‍थान स्‍वयं बनाती हैं।हाल ही में अनुपम खेर द्वारा गांधी जी के विचारों पर आधारित एक फिल्‍म में महाप्राण निराला का गीत इसका एक उदाहरण है।
विषय के समापन पर हम इतना ही कह सकते हैं कि
जितना सम्‍मान फिल्‍मकार कवियों साहित्‍यकारों को देंगे उतना ही स्‍थान दर्शक उनकी फिल्‍मों को अपने दिलों में देंगे।
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रविवार, 19 सितंबर 2010

तकनीकी शिक्षा में हिन्‍दी का समावेश कब और कितना

तकनीकी शिक्षा में हिन्‍दी का समावेश होना चाहिये यदि हॉं तो कितना। क्‍या एक इंजीनियर का हिंदी ज्ञान

उसे एक उत्‍कृष्‍ट इंजीनियर बनने में मदद करता हैअथवा यह स्‍वैच्‍छिक एवं वैकल्पिक है।क्‍या हम ऐसे इंजीनियर की कल्‍पना भी कर सकते हैं जो केवल अंग्रेजी जानता हो फिर भी सफल हो ।किस प्रोजेक्‍ट की कहां आवश्‍यकता हैइसका पता आम लोगों से बातचीत से ही लगता है।जहॉं पानी की कमी से किसानों की फसल सूख रही हो टेलीफोन के तार दौड़ाना प्राथमिकता नहीं हो सकती है।इसी प्रकार की अन्य बातें हैं लोगों की समस्‍याओं का ज्ञान उनसे संवाद स्‍थापित करके ही हो सकता है।लोक भाषा के ज्ञान के बिना .बिना स्‍थानीय लोगों की अपेक्षाओं को जाने इंजीनियर मात्र अव्‍यावहारिक कल्‍पनाएं ही कर सकता है।

दूसरी बात यह है कि यदि एक बालक ने बारह वर्ष तक अपनी पढ़ाई हिन्‍दी में की है तब औषधीय उपचार की तरह अंग्रेजी में इंजीनियरिंग पढ़ाने की आवश्‍यकता क्‍या है ।जब जब हिन्‍दी की बात बाती है तो अंतरराष्‍ट्रीय जुढ़ाव की बात चलने लगती है ।अब प्रश्‍न यह है कि क्‍या हिन्‍दी भाषी इंजीनियर द्वारा डिजाइन किये पुल पर किसी अंग्रेजी भाषी व्यक्‍ति को चलने में कठिनाई आयेगी।या फिर हिन्‍दी भाषी इंजीनियर द्वारा डिजाइन की गयी बस अथवा ट्रक को विदेशी जन खरीदने से हिचकेंगे और मजे की बात यह है कि विभिन्‍नउत्‍पादों को ग्राहकों के लिये अधिक सुविधाजनक बनाने केलिये उनके कार्य पटल पर हिंदी का समावेश करना होता है और इस काम की अपेक्षा भी उसी इंजीनियर से की जाती है जिसे बल पूर्वक अंग्रेजी माध्‍यम से शिक्षा दी गयी है ।ए टीएम पर हिन्‍दी में काम करने का विकल्‍प.रेलवे की सूचनाओं की हिन्‍दी में कम्‍प्‍यूटर चालित अपडेटिंगहिन्‍दी में मोबाइल पर विभिन्‍न जानकारियॉंतथा विज्ञापन जैसी अनेक बातें हैंजो आमतौर पर प्रचलित हैं। जो बात हम विश्‍व के अन्‍य देशों के लिये सोचते हैं वैसा ही दृष्‍टिकोण अन्‍य लोग हमारे बारे में रखते हैं ।अभी हाल ही में पेन्‍सिलवेनिया विश्‍वविद्यालय ने अपने एम बी ए विद्यार्थियों के लिये एक द्विवर्षीय हिन्‍दी कोर्स प्‍लान किया है जिससे भारत आने वालों को मदद मिलेगी।ऐसा विश्‍व में भारत की मजबूत आर्थिक उपस्‍थिति के कारण है।अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍थितियों में भाषाओं का आदान प्रदान तो चलता ही रहता है किन्‍तु हम अंग्रेजी कुछ ज्‍यादा ही सीखने लगे हैं।बतख को डक कहने से क्‍या लाभ हमें उससे अंग्रेजी में बात तो करनी नहीं है।उसे बतख ही कहने में क्‍या हर्ज है।

जिस भाषा में बालक चिंतन नहीं कर सकता उस भाषा में उसे ज्ञान विज्ञान पढ़ना होता है यहांतक कि वह उच्‍च कक्षाओं में गणित भी हिन्‍दी में नहीं पढ़ सकता जबकि भारतीयों ने ही गणित को यहॉं तक पहुँचाया है।प्रसिद्ध गणितज्ञ लीबनिट्ज ने कहा था यदि भारतीयों ने गणित का विकास नकिया होता तो आज हम अंधकार युग में रह रहे होते ।उसी गणित का उच्‍चतर कक्षाओं में हिन्‍दी में पढ़ना वर्जित है।भारतीयों को प्रकाश के विभिन्‍न रंगों का गुरुत्वाकर्षण का ज्ञान पहले ही से था उसे हम न्‍यूटन के नाम से अंग्रेजी में पढ़ते हैं।एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक तो उस पेड़ की टहनी भी लेआए हैंजो सेब गिरने से गुरुत्‍व बलके आविष्‍कार की कथा से जुड़ी है जबकि पश्‍चिम के लोगों का ही कथन है कि उस मौसम में वहां सेब होता ही नहीं है।इस प्रकार पराई भाषा में पढ़ने के कारण हम मानसिक रूप से पंगु होते जा रहे हैं तथा अपनी उपलब्‍धियो को भी अपना कहने में हमें संकोच होता है।

भारतेंदु का यह कथन समय की कसौटी पर कितना खरा उतरता है:

निज भाषा उन्‍नति अहै सब उन्‍नति को मूल

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय की सूल।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

छड़ी किसकी?

विश्‍व प्रसिद्ध हाकी खिलाड़ी ध्‍यानचंद जी ने अपने खेल का प्रारंभ कपड़े लपेट कर बनायी गयी गेंद तथा पेड़ की टहनी से बनी हाकी से अभ्‍यास करके किया। म्‍यूनिख ओलंपिक में उनकी प्रतिभा का लोहा विश्‍व ने माना।वह गेंद जिधर चाहते थे वहॉं हाकी के साथ साथ ले जाते थे।इससे लोगों को भ्रम हो गया कि कहीं इनकी हाकी में चुम्‍बक तो नहीं हैं।इस पर उन्‍होंने साधारण छड़ी से भी उसी प्रकार खेल कर दिखा दिया। उनके चमत्‍कारपूर्ण खेल से प्रभावित होकर वहॉं लोगों ने उनकी एक अष्‍टभुजी प्रतिमा स्‍थापित कर दी जिसमें उनके प्रत्‍येक हाथ में हाकी थी।हिटलर ने उन्‍हें अपनी सेना में उच्‍च पद देने का प्रस्‍ताव दिया जिसे उन्‍होंने सहज ही ठुकरा दिया।


हमें याद है अपने कालेज के दिनों में हम लोग इस बात से बहुत गौरवान्‍वित होते थे कि रामनाथनकृष्‍णन डेविस कप के चैलेन्‍ज राउन्‍ड में हैं बाद में ऐसे अनेक अवसर आए। रमेश कृष्‍णन. लिएन्‍डर पेस महेश भूपति और यह शृंखला बढ़ती ही चली गयी। अब बैडमिन्‍टन की बात लें।प्रकाश पादुकोण 1980 के आसपास आल इंग्‍लैंड बैडमिन्‍टन प्रतियोगिता में शीर्ष पर रहे ।इससे अंग्रेजों को इतना धक्‍का लगा कि उन्‍होने इसका टी वी प्रसारण ही नहीं होने दिया । उनकी छड़ी का स्‍वागत हम खुले दिल से कैसे कर सकते हैं।इसी क्रम में शीर्षके इस अभियान को फुलेरा गोपीचंद ने और सशक्‍त बनाया और अब सानिया नेहवाल का नाम हमारे सामने है।

कुछ समय पूर्व हुये विश्‍व ओलंपिक में भारत का नाम कई प्रतिस्‍पर्धाओं में सामने आया।  निशानेबाजी में अभिनव बिन्‍द्रा को स्‍वर्ण.विजेन्‍द्र को बाक्‍सिंग में तथा कुश्‍ती में सुशील कुमार को कांस्‍य पदक मिले।क्‍यूबा के लोग भी अब 'भिवानी' के बाक्‍सिंग रिंग के प्रति सतर्क हो गयेहैं। कहने का तात्‍पर्य यह है कि राष्‍ट्रमंडल खेलों से हमें कोई विशेष लाभ नहीं होने वाला।उपर से यह खेल एक ऐसे देश पर केन्‍द्रित हैं जिसके उपनिवेशवादी चरित्र तथा रंगभेदी व्‍यवहार से हम सब भली भॉंति परिचित हैं।इस समूह के एक अन्‍य देश आस्‍ट्रेलिया के वहॉं रह रहे भारतीयों के प्रति दुर्व्‍यवहार से हम सब आहत हैं।ऐसी दशा में इस छड़ी का स्‍वागत कर हम विश्‍व के सन्‍मुख इस प्रकार के व्‍यवहार के प्रति अपनी सहमति ही दर्शायेंगे और कुछ नहीं।

भारत सदा से स्‍वतंत्रता .समानता एवं विश्‍व बंधुत्‍वका प्रतीक रहा है ।ऐसी दशा में यदि इन खेलों को जारी ही रखना हैतो यह छड़ी भारत केन्‍द्रित होनी चाहिये।इससे संपूर्ण विश्‍व को प्रेरणा मिलेगी।