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प्रारंभ में कुछ कवि इस नये माध्यम की ओर आकर्षित भी हुये। सुकुमार कविता के कवि पं सुमित्रानंदन पंत ने तो बतौर नायक एक फिल्म (कल्पनामें काम भी किया यह और बात है कि किन्हीं कारणों से वह फिल्म प्रदर्शित नहीं हो पाई। कविवर प्रदीप में निराला जी अपनी ही छाया देखते थे। उन्होंने स्वतंत्रता पूर्व तथा पश्चात् फिल्म जगत में अपनी अनुपम छटा बिखेरी। 'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो ए दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है ' स्वतंत्रता पूर्व के गीत तथा बाद में जागृति के गीत' आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झॉंकी हिन्दुस्तान की' जैसे प्रेरणादायक गीत जो हम लोगों ने बचपनमें गुनगुनाये थे उन्हीं की रचना हैं। बाद में उर्दू कविता तथा इसके समानांतर हिन्दी कविता का दौर चला। उर्दू रचनाएं काफी लोकप्रिय हुयीं किन्तु उनमें कविता की गहराई कम थी। फिल्म बरसात की रात. मेरे महबूब फिल्मों के प्रसिद्धगीत प्रथम परिचय की परिस्थितियों का वर्णन और इस प्रकार भीड़ में किसी एक की तलाश अधिक थे। कुछ गीतों को गरिमा प्रदान करने के लिये उन्हें रेडियो पर गाते हुये भी दिखाया गया। इससे रेडियो को भी लोकप्रियता मिली और रेडियो मुख्य कविता की धारा भुला कर इसी प्रकार के गीतों में अटक कर रह गया। निराला जी ने आकाशवाणी इलाहाबाद के कार्यक्रम संचालक महोदय से जब सामान्य से हट कर अधिक फीस की मांग की तब उन्हें इस बात पर बहुत अधिक हंसी आ गयी। कवि की पीड़ा से उन्हें कोई मतलब नहीं था। 'तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू'। कवियों का समय समय पर अपमान भी होता रहा और धीरे धीरे उन्होंने रेडियो स्टेशनों से किनारा कर लिया।
एक फिल्म में कवियों को बताया गया कि वे संस्कृतनिष्ट शब्दों को छोड़ कर सरल प्रचलित(चलताउ) शब्दों का प्रयोग किया करें यद्यपि यह बताने वाले फिल्मी कवि ने स्वयं अपने लिये आरजू बेखुदी जुस्तजू जैसे शब्दों का प्रयोग बड़े आराम से कर लिया।
वैसे फिल्में कवियों के बिना अधूरी थीं। गुरुदत्त की 'प्यासा 'फिल्म ने इस दृष्टि से दर्शकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ी।फिल्म' छाया 'में भी कवि को केन्द्र में रख कर एक अच्छी फिल्म का निर्माण किया गया था।फिल्म 'निरुपमा 'का कवि (या लेखक)एक श्रेष्ठ फिल्म का सशक्त पात्र था।
फिल्मों में अच्छे कवियों का प्रवेश सदा ही एक समस्या रहा ।फिल्मी गीतों को कवि अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे।राजकपूर ने जब एक कवि सम्मेलन में प्रभावित होकर शैलेन्द्र सेमुम्बई(तब बंबई )आने के लिये कहा तब उन्होंने कहा 'मैं बिकना नहीं चाहता'। कुछ समय बादआर्थिक परिस्थितयों वश मुम्बई आये तब फिर उनका कथन था''मैं बिकने के लिये आ गया''। बहुत समय पूर्व दिल्ली में हुए एक कवि सम्मेलन में एक कवि महोदय का परिचय कराया गया इनका गीत 'मैंने चाहा था कि ऑंचल का मुझे प्यार मिले..........' फिल्म में आाने वाला है।बाद में जब अन्य कवियों ने उन्हेंफिल्मी कवि कहना शुरू कर दियातब उन्होने संकोचपूर्वक कहा 'केवल एक गीत फिल्म में गया है।''...।
इस प्रकार जहॉं किसी कवि ने फिल्म में लिखा नहीं कि उसे साहित्यिक बिरादरी से बाहर करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है ।प्रसिद्ध गीतकार नीरज ने संभवत: इन्हीं बातों को लेकर फिल्मी दुनिया छोड़ दी और अपने गृह नगर जाकर स्वतंत्र रूप से साहित्य का सृजन करने लगे फिर भी हम उन्हें लोक प्रिय गीतकार के रूप में ही अधिक जानते हैं एक साहित्यकार के रूप में कम।अभी हम फिल्मों की बात कर रहे थे।आम तौर पर देखागया है कि कवि फिल्म के लिये लिखते हैं।ऐसा कम ही होता है कि गीत के लिये फिल्म लिखी जाये।नीरज के साथ ऐसा ही हुआ ।उनके प्रसिद्ध गीत ''कारवां गुजर गया......''को केन्द्र में लेकर बनी फिल्म 'नई उमर की नई फसल'।फिल्म काफी चली भी।अब नीरज जहॉं कहीं भी जाते हैं जनता की फर्माइश पर यह गीत उन्हें अवश्य सुनाना होता है।
महाकवियों की अमर रचनाएँअपना स्थान स्वयं बनाती हैं।हाल ही में अनुपम खेर द्वारा गांधी जी के विचारों पर आधारित एक फिल्म में महाप्राण निराला का गीत इसका एक उदाहरण है।
विषय के समापन पर हम इतना ही कह सकते हैं कि
जितना सम्मान फिल्मकार कवियों साहित्यकारों को देंगे उतना ही स्थान दर्शक उनकी फिल्मों को अपने दिलों में देंगे।
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